मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

सच्चाई की सड़क पर 06

सच्चाई की सड़क पर,
है झूठ का कुहासा।

स्वार्थों की ठंढ बढ़ती
ही जा रही है हर-पल,
परहित का ताप सोया
ओढ़े सुखों का कम्बल;
हैं प्रेम के सब उपले
अब दे रहे धुँआ-सा।

सब मर्सिडीज भागें
पैसों की रोशनी में,
ईमान-दीप वाले,
डगमगाती तरी में;
बढ़ती ही जा रही है,
अच्छाई की हताशा।

घुट रहा धर्म दबकर
पाखंड की बरफ से,
तिस पर सियासतों की
आँधियाँ हर तरफ से;
कुहरा बढ़ा रही है,
नफरत की कर्मनाशा।

पछुआ हवा ने पाला
ऐसा गिराया सबपर,
रिश्तों के खेत सारे
अब हो गये हैं बंजर;
आयेंगी गर्मियाँ फिर,
है व्यर्थ अब ये आशा।

-धर्मेन्द्र कुमार सिंह ’सज्जन’

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