सर्दी में
सूरज की गुम हुई गरमाई
कोहरे की चादर ली
धुंध की रजाई
जाड़ा है पाला है
हल्की-सी दुशाला है
छुट्टी का नाम नहीं खुली पाठशाला है
सुबह-सुबह उठने में कष्ट बहुत भारी
और सजा की जैसी
लगती है पढ़ाई
सब कुछ है
धुँधला-सा गीला-सा सब
नाक कान मुँह ढाँके लगते सब अजब
धुआँ-धुआँ आता है जब भी कुछ बोलो
चुप रहना आता नहीं
क्या करें हम भाई
धूप की धमक पर
लग गया ग्रहण कोई
चंदा भी चुप होकर कर रहा है प्रण कोई
तारे अब आते नहीं शायद ननिहाल गए
जाने कब आएगी वसन्त
लिए पुरवाई
--सिद्धेश्वर सिंह
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