शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

आँगन में बासंती धूप : अजय गुप्त 07

आँगन में बासंती धूप : अजय गुप्त

शिखरों से घाटी तक सोना सा बिखर गया,
आँगन में बासंती धूप उतर आई है।

खेतों से पनघट तक
कोहरा ही कोहरा था,
कहीं नहीं हलचल थी
सब ठहरा-ठहरा था।
हिम निर्मित चोली के बटन सभी टूट गए,
मधुऋतु ने कुछ ऐसी ले ली अँगड़ाई है।

प्रकृति, पुरुष सब पर ही
बिखर गया रँग-अबीर,
मस्ती में डूब चुका
है युग चेता कबीर।
लपटों ने भून लिए नर्म चने के बिरवे,
बौराए आमों की बस्ती पगलाई है।

तने हुए तेवर
अलसाई पतवारों के,
अब बिस्तर बाँध रहे
काफ़िले सिवारों के।
तट हैं जागे-जागे सूनी सरिताओं के,
लहरों पर हलचल है, काँप रही क्यारी है।

गतिविधियों के पीछे
भाग रही हैं आँखें,
कोटि-कोटि चेहरों पर
जाग रही हैं आँखें।
मौसम की गर्माहट कर रही प्रमाणित यह,
अब नहीं कहीं सीली कोई दियासलाई है।

--
अजय गुप्त
शाहजहाँपुर (उ.प्र.)

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