मौसम की माया है,
धुंध-भरा साया है –
आए कैसे बसंत?
रोज़-रोज़ काट रहे
हर टहनी छाँट रहे!
घोंसला बनाने को
कैसे वे आएँगे?
सुन उनका कल-कूजन
क्या अब अँखुआएँगे?
नन्हे उन पंखों को
पाए कैसे अनंत?
स्वरलहरी डूब रही
गाए कैसे बसंत?
आए कैसे बसंत?
कचरे से पाट रहे
ख़ुशियों को डाँट रहे!
महक भरे झोंके अब
कैसे आ पाएँगे?
नेह-भरे सपने अब
कैसे मुस्काएँगे?
सपनों का इंद्रधनुष
पाए कैसे दिगंत?
मन-कुंठा फूल रही
भाए कैसे बसंत?
आए कैसे बसंत?
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रावेंद्रकुमार रवि
चारुबेटा, खटीमा, ऊधमसिंहनगर (उत्तराखंड)
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