शिशिर का हुआ नहीं अन्त
कह रही है तिथि कि आ गया वसन्त !
क्या पता कैलेन्डर को
सर्दी की मार क्या है।
कोहरा कुहासा और
चुभती बयार क्या है।
काटते हैं दिन एक एक गिन
याद नहीं कुछ भी कि तीज क्या त्यौहार क्या है।
वह तो एक कागज है निर्जीव निष्प्राण
हम जैसे प्राणियों के कष्ट हैं अनन्त।
माना कि व्योम में
हैं उड़ रहीं पतंगें।
और महाकुम्भ में
हो रहा हर गंगे।
फिर भी हर नगर हर ग्राम में
कम नहीं हुईं अब भी जाड़े की तरंगें।
बोलो ऋतुराज क्या करें हम आज
माँग रहे गर्माहट सब दिग - दिगन्त ।
माना इस समय को
जाना है जायेगा ही।
यह भी यकीन है
कि मधुमास आयेगा ही।
फिर भी अभी और दिन भी
जाड़े का जाड़ापन ही जी भर जलायेगा ही।
आओ ओस पोंछ दें शाही सवारी की
मठ से निकल पड़े हैं वसन्त बन महन्त।
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सिद्धेश्वर सिंह
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