सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

आँगन में उतरे जो साए 08

आँगन में उतरे जो साए,
विस्फोटों से दिल दहलाए।
तड़-तड़ करके ऐसे चीखे,
घरवालों को मौत सुलाए।

पाँव बड़े
आतंक के देखे,
रह गए सारे
हक्के-बक्के।
ख़ून-ख़राबा, गोला-बारी
गलियाँ सूनी मरघट चहके।
पौरुषता को कभी न भाये।

धर्म-जुर्म का
गहरा नाता,
सहमी बहना
सहमा भ्राता।
आचार संहिता दम तोड़े तो
दुर्बल कोई न्याय न पाता,
सबको दहशत से धमकाए।

अजगर भय का
जग को लीले,
कृष्ण ही आकर
इसको कीलें।
एक नहीं कई शिव चाहिए
जो उग्रवाद के ज़हर को पीलें,
रक्त विषैला कहाँ से लाए?
--
निर्मल सिद्धू

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