डरी-डरी चौपाल है,
काँपती है हर गली।
कैसी यह हवा चली ?
झर गई हैं कोंपलें
रिश्तों की बेल की,
रीती-रीती गागरें
रँगों के मेल की।
मन के किसी छोर में,
आस्था गई छली।
कैसी यह हवा चली?
किस दिशा से आ रही
बारूद की दग्ध गंध,
कब किसी ने तोड़ दी
प्रेम की पावन सौगंध?
भस्म सद्भाव है,
संवेदना घुली-गली।
कैसी यह हवा चली?
टूटे पुलिन तो क्या हुआ,
नदी क्यों बहना छोड़ दे?
तरंग विश्वास की,
दो किनारे जोड़ दे।
मरुथलों में ढूँढ़ लो,
हरीतिमा की नव कली!
भीनी-सी हवा चली!
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शशि पाधा
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