शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

काला कूट धुआँ : प्रवीण पंडित 08

नस-नाड़ी अग्नि दहकाता काला कूट धुआँ
बन कर आँसू भरी आंख से आया फूट धुआँ

सरसों झुलसी , सूखी तुलसी
घर अंगने बदरंग ।
मक्खन जैसी देह का छिन मे,
छलनी हो गया अंग ।
अरमानों की फ़सल को पल में ले गया लूट धुआँ ।

बिटिया बहना निपट अकेली,
चौखट बिखरे केश ।
देह हुलसती लकवा खा गयी,
फुलकारी हुई श्वेत ।
उम्र चौरासी के सपनों को कर गया ठूंठ धुआँ।

भटके बछड़ों के सपनों की ,
ऊंची उड़े पतंग|
रोज़ी-रोटी की आसानी,
सीख और सत्संग|
काले बादल चीर के उजली दे जाये धूप धुआँ।
--
प्रवीण पंडित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें