सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

सपने शांति के पाले 08

घाव गहरे हैं,
बम विस्फोटों के छाले।
फिर भी हमने,
सपने शांति के पाले।

चाहे जाए बाज़ार या शहर,
या करे कोई कहीं भी सफ़र,
हर पल रहती चौकन्नी नज़र,
कहीं से न हो हमले की ख़बर,
ढा न जाए कोई सिरफिरा क़हर।

दहशतगर्दी के इस माहौल में -
कैसे कोई
शब्दों को गीतों में ढाले।

बात हमले की आम रोज़ हो गई,
आतंकी गठरी सर पे बोझ हो गई,
जनता में नई ख़बर खोज हो गई,
डरने की बात जमींदोज हो गई,
निर्भय रहना सबकी सोच हो गई।

हिन्द की जनता सब कुछ पी जाती -
चाहे बरसा लो
तुम ज़हर-भरे प्याले।

तीज-त्योहार जहाँ के रीति-रिवाज,
ऐसे में खु़शियों की आती आवाज़,
सीमा पर मुस्तैद सेना का जाँबाज,
जिसके बल पर है कल और आज,
जनता को क्यों न हो उस पर नाज़।

अपनी जान की परवाह छोड़ -
वो रहते हैं
औरों के रखवाले।
--
विमल कुमार हेडा
रावतभाटा, चित्तौड़गढ़ , राजस्थान (भारत)

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