जिन्दगी ही जिन्दगी पे आज भार हो गई!
मनुजता की चूनरी तो तार-तार हो गई!!
हादसे सबल हुए हैं
गाँव-गली-राह में,
खून से सनी हुई
छुरी छिपी है बाँह में,
मौत जिन्दगी की रेल में सवार हो गई!
मनुजता की चूनरी तो तार-तार हो गई!!
चीत्कार, काँव-काँव,
छल रहे हैं धूप छाँव,
आदमी के ठाँव-ठाँव,
चल रहे हैं पेंच-दाँव,
सभ्यता के हाथ सभ्यता शिकार हो गई!
मनुजता की चूनरी तो तार-तार हो गई!!
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
खटीमा, उत्तराखण्ड (भारत)
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