बस्ती बस्ती आ पहुँची है
जंगल की खूँख्वार हवाएँ।
उत्पीड़न अपराध बोध से
कोई दिशा नहीं है खाली।
रखवाले पथ से भटके हैं
जन की कौन करे रखवाली।
चल पड़ने की मज़बूरी में
पग पग उगती हैं शंकाएँ।
कोलाहल गलियों-गलियारे
जगह-जगह जैसे हो मेला।
संकट के क्षण हर कोई पाता
अपने को ज्यों निपट अकेला।
अपराधों के हाथ लगी हैं
रथ के अश्वों की वल्गाएँ।
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डॉ विद्यानंद राजीव
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