आतंकित हो मानवता की कोयल भूली कूक,
अंधा धर्म लिए फिरता है हाथों में बंदूक।
नफ़रत के प्यालों में,
जन्नत के सपनों की मदिरा देकर;
दोपाए मूरख पशुओं से,
मासूमों का कत्ल कराकर;
धर्म बेचने वाले सारे रहे ख़ुदी पर थूक।
रोटी छुपी दाल में जाकर,
चावल दहशत का मारा है;
सब्जी काँप रही है थर-थर,
नमक ही कथित हत्यारा है;
इसके पैकेट में आया था लुक-छिपकर बारूद।
इक दिन आयेगा वह पल,
जब अंधा धर्म आँख पाएगा;
देखेगा मासूमों का खूँ,
तो रोकर वह मर जाएगा;
देगी मिटा धर्मगुरुओं को फिर उनकी ही चूक।
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धर्मेंद्रकुमार सिंह ’सज्जन’
मुंसयारी, पिथौरागढ़, उत्तराखंड (भारत)
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