कुमुदिनी बन गईं तुम जो
भँवर बन के दिखाएँगे
खिलो तुम झील में चाहे
सरोवर में कहीं सजनी
मगर मिल जाऊँ मैं तुमको
जहाँ ढ़ूँढ़ों वहीं सजनी
तुम्हारी बेकरारी का मुझे
एहसास है लेकिन
ज़रा-सी शाम ढल जाए
तुम्हारे पास आएँगे
तुम्हारे बिन नज़ारे जो
कभी लगते वीराने से
वही हँसने लगे खुलके
तुम्हारे मुस्कुराने से
उजाले काट लो चाहे
जहाँ के साथ जानेमन
अँधेरा बाँटने हरदम
तुम्हारे पास आएँगे
नज़र के रास्ते दिल में
तेरे जो हम उतर जाएँ
तेरी धड़कन से फिर कोई
नया सरगम निकल जाए
सताएगी नहीं फिर तो
किसी मौसम की रुसवाई
कभी ठुमरी, कभी कजरी
कभी सोहर सुनाएँगे
--
शंभु शरण "मंडल"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें