रविवार, 23 अक्तूबर 2011

आ गया दालान तक पानी : डॉ.सुभाष राय 10

मेघ आए
हम चलें भीगें कि
अपना घर बचाएँ
नींव है कमजोर
डर है ढह न जाए

प्यास से जब कंठ सूखे
गाँव के, बरसे न ये घट
आदमी जैसे भरोसा
खो चुके हैं नीर के नट
हो गए हैं अर्थ
ऋतुओं के निरर्थक
जिंदगी के गीत रूठे
किस तरह गाएँ

आ गया दालान तक
पानी गली को पारकर
एक चादर थी, हुई गीली
न सोया हारकर
बिस्तरे, बर्तन हुए हैं
नाव, आँगन ताल
डूबकर इसमें जिएँ
या डूब जाएँ

दर्द के झूले, अभावों ने
रची कजरी हमारी
जेठ सावन पर हमेशा
ही पड़ी है भूख भारी
जागना जिनको वही
सोए हुए हैं तानकर
मेह बरसे आग
शायद जाग जाएँ

बहुत गहरे एक बादल
गरजता मेरे हृदय में
उठ रहा तूफान बनकर
हौसले जैसा प्रलय में
बाढ़ दुख की बह चली तो
रोक पाएगा न कोई
और कब तक हम सहें
वे जुल्म ढाएँ
--
डॉ. सुभाष राय
ए-१५८, एम आई जी, शास्त्रीपुरम, बोदला रोड, आगरा (उ.प्र.)
फ़ोन-०९९२७५००५४१

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