रविवार, 23 अक्तूबर 2011

मन में आग लगाए रे : डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक" 10

चौमासे में आसमान में
घिर-घिर बादल आए रे
श्याम-घटाएँ विरहनिया के
मन में आग लगाए रे


उनके लिए सुखद चौमासा
पास बसे जिनके प्रियतम
कुण्ठित हैं उनकी अभिलाषा
दूर बसे जिनके साजन
वैरिन बदली खारे जल को
नयनों से बरसाए रे
श्याम-घटाएँ विरहनिया के
मन में आग लगाए रे


पुरवा की जब पड़ीं फुहारें
ताप धरा का बहुत बढ़ा
मस्त हवाओं के आने से
मन का पारा बहुत चढ़ा
नील-गगन के इन्द्रधनुष भी
मन को नहीं सुहाए रे
श्याम-घटाएँ विरहनिया के
मन में आग लगाए रे


जिनके घर पक्के-पक्के हैं
बारिश उनका ताप हरे
जिनके घर कच्चे-कच्चे हैं
उनके आँगन पंक भरे
कंगाली में आटा गीला
हर-पल भूख सताए रे
श्याम-घटाएँ विरहनिया के
मन में आग लगाए रे
--
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
टनकपुर रोड, खटीमा,
ऊधमसिंहनगर, उत्तराखंड, भारत - 262308

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