सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

बरखा बिखरी 10

बरखा बिखरी
हुई वियोगिन साँवरी
नाची झन-झनक-झन
बावरी

कोयल कूकी
एक लहर-सी जी में हूकी
कुछ सीधे, कुछ आड़े-टेढ़े, पाँव री
बिखरी लटियां, नयना बिखरे
भाव री

मेघा गरजा
बहुत हिया में ख़ुद को बरजा
भूली पनघट, कुइँयाँ, गलियाँ, गाँव री
पी को मिलने चली, लिए मन
चाव री

रिमझिम बुँदियाँ
भीगा झूलन,भीगा अँचरा,भीगी गुइँयाँ
सुबक सवेरे कागा बोला, काँव री
जागी लगी जिया की, भूली
घाव री
--
प्रवीण पंडित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें