धूल-भरी राहों में तपते
भूले पल-छिन अपने को
कजरारे बादल अम्बर पर
ले आए फिर सपने को
सुधियों को जैसे सुध आई
अकुलाकर पीछे देखा
खिंच गई तभी अन्तर में
वह खोई स्वर्णिम रेखा
कोरा कागज निखरा जैसे
रंग-तरंगें छपने को
शीतल संदेशों से नभ की
भर आई फिर गागर है
धड़कन में उतर गया रस का
लहरों वाला सागर है
जाग उठी हैं सोई सासें
जीवन–जीवन जपने को
बन्द अधर पर चुम्बन-जैसी
अमृत की उपमाओं की
विजय पताकाएँ फहरातीं
मुरझाई तृष्णाओं की
रिमझिमवाली चकाचौंध से
बेसुध आँखें झपने को
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निर्मला जोशी
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