रविवार, 23 अक्तूबर 2011

फिर भी है कींच 10

इंद्रधनुष की डोरी नभ में
सूरज आज रहा है खींच
धोबन-बदली इस धरती के
मैले वसन रही है फींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच

चश्मे की छतरी के नीचे
बैठी आँखें इतराती हैं
आँतें आँतों को डकारकर
ना जाने क्या-क्या गाती हैं
गंगा-तट पर बैठा बगुला
दबा रहा मछली की घींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच

रात-भर अँधेरे को पूज चुके
लोगों को नींद आ रही है
फोड़ चुकी कौवी के अंडों को
कोयल अब मुस्करा रही है
सुन लेते हैं गीत अवांछित भी
सब अपनी आँखें मींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच
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रावेंद्रकुमार रवि

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