वर्ष!
हर्ष, उत्कर्ष
नव जीवन दो।
घुटन भरी
सांसों को
स्पन्दन दो।
बीत गईं यूँ ही
कितनी सदियाँ
विषभार वहन
करती हैं नदियाँ,
दूर दूर तक
यह मौन उदासी
इस पानी की
हर मछली प्यासी।
अब नूतन रस
पावन
सावन दो।
चिपके-चिपके
अंधियारे छूटें
विकल विषमता के
बंधन टूटें,
गीत नया
परिभाषित हो निखरे
छन्दों के घर
इन्द्र धनुष उतरे।
इतिहास
नया हो
संवेदन दो।
--निर्मला जोशी
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