सड़क के दोनो किनारे
कोई झंडा गाड़ बैठा
किस तरह बीमार बैठा
चुप रहेंग बंशियाँ भी
बोलने वालों के आगे
रंग मटमैले लगेंगे
चल रहे मौसम अभागे
गंध भी टहलेगी लेकिन
है प्रतीक्षित खार बैठा
यह सदी भी खास होगी
है नहीं आसार इसका
आदमी जो गुम हुआ है
मूल्य उसका भार इसका
मापनों परिमापनों का
दिन बहुत कुछ हार बैठा
जिंदगी नंगी अकेली
चल पड़ी है बस्तियों में
मुट्ठियाँ भींचे चलीं
सैलानियों की कश्तियों में
रात को बेआबरू कर
एक पहरेदार बैठा
--अश्विनी कुमार आलोक
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