सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

अनुबंध लिखूँ 14

मन करता है फिर कोई अनुबंध लिखूँ
गीत गीत हो जाऊँ ऐसा छंद लिखूँ

करतल पर तितलियाँ खींच दें
सोन सुवर्णी रेखाएँ
मैं गुंजन गुंजन हो जाऊँ
मधुकर कुछ ऐसा गाएँ
हठ पड़ गया वसंत कि मैं मकरंद लिखूँ
श्वास जन्म भर महके ऐसी गंध लिखूँ

सरसों की रागारूण चितवन
दृष्टि कर गई सिंदूरी
योगी को संयोगी कह कर
हँस दे वेला अंगूरी
देह मुक्ति चाहे फिर फिर रसबंध लिखूँ
बंधन ही लिखना है तो भुजबंध लिखूँ

सुख से पंगु अतीत विसर्जित
कर दूँ यमुना के जल में
अहम समर्पित हो जाने दूँ
कल्पित संकल्पित पल में
आगत से ऐसा भावी संबंध लिखूँ
हस्ताक्षर में निर्विकल्प आनंद लिखूँ

--रामस्वरूप 'सिंदूर'

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