दादा जी की आँखें बूढ़ी होकर भी
अखबारों के भीतर गड़ती जाती हैं
समाचार में निहित भाव से हिलमिल कर
अंतरमन में जाने क्या बतियाती हैं
एक जमाना ऐसा था जब
खबर खुशनुमा आती थी
सुबह-सवेरे चाय की चुस्की
ज्ञान सुधा भर जाती थी
लेकिन आज समय है बे-कल
खबरों पर रफ्तार की दंगल
सेक्स, ग्लैमर, औ' खून-खराबा
खबर गई बस इतने में ढल
पैसों में बिकती है पाई जाती है
न्यूज रूम में खबर बनाई जाती है
शब्दों के व्यवहार हैं रूखे
समाचार हैं एड सरीखे
मालिक संपादक बन बैठे
कोई भला क्या इनसे सीखे
जो थे कभी ज्ञान की कुंजी
हावी वहाँ आज है पूँजी
सरस्वती पर लक्ष्मी भारी
माल-मुनाफे में सब धूँजी
खबरों से बेरूखी दिखाई जाती है
सिर्फ लाभ की बीन बजाई जाती है
नियति वर्मा
(इंदौर)
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