ढाक के तीन पात थे
वो भी अब खो गये
पसई के चाउर से
सपने हम बो गये ।
जंगल का बिरवा था
बस्ती ने खा लिया
आग को पानी की
मस्ती ने पा लिया
उजड़े वीराने तो
शहरों के वंश बढ़े
पेड़ों में नव पलाश
जागे थे, सो गये ।
निर्धन की आँखों में
टेसू सा सपना है
दहक रहे सूरज से
उपवन का दहना है
डालों पर अंगारे
आँखों में सूरज है
जेठ के अंधड़ में
सपने सब खो गये ।
लाल से अधरों पर
पीली सी वंशी है
ढाक की गोद में
किरनों का अंशी है
गाँव के बाहर भी
सावन जी लेता है ।
फूलों के पाहुन भी
फागुन से हो गये ।
--डा० जीवन शुक्ल
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