जब होंगे फिर मन पलाश
भटक गए हैं
कालखण्ड में
रंग वसंती, केसू, केसर
आसक्ति का
नेह में तिरना
सुन्दरि का अन्तः निवास।
अपरिमेय
आनन्दिक अनुभव
संग - सहेली
स्मृति खोई
कब बोलेंगे ‘पिउ’ ‘पिउ’
बिखरेगी चहुँदिश सुवास।
रूप केतकी
ढीठ निगोड़ी
इठलाएगी छलना जैसी
रीझ उठेंगे
अनजाने ही
विस्मृत कर अपने संत्रास।
चंचल नदी
लहरता आँचल
अविरल कल-कल
मय निश्छल जल
लौटेंगे वे बीते दिन
जब होंगे फिर मन पलाश।
-हरीश प्रकाश गुप्त
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