शहर में एकांत
कहाँ पाएँ ।
आकाश
सिर पर
संकुचित
आकार धर बैठा
हर ओर
पत्थर की दिवारें
दृष्टिपथ
बंदी बना बैठा
अनवरत झरते हुए
इस शोरगुल में
कैसे भला
हम गुनगुनाएँ ।
शहर में एकांत
कहाँ पाएँ ।
इस छोर से
उस छोर तक
हर पल
लहर जाती तपन
स्वांस का आधार लेकर
हृदय तक
गुपचुप
पसर जाती अगन
मशीनों में
लिया है भर
देह श्रम,
सारे जतन
ऐसे में भला
कोई बता दे
हम इन्हें कैसे भुलाएँ ।
शहर में एकांत
कहाँ पाएँ ।
- सुरेश कुमार पांडा
(रायपुर)
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