सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

17

रात बिताई तन्हाई में, दिन गुजरा अंधियारों में।
ओझल हो गई गाँव की गलियाँ, शहर के चाँद-सितारों में।।

भीड़ बहुत है लेकिन कितनी
निर्जन खाली-खाली है।
चाहत का तो नाम नहीं है,
मुख पर भद्दी गाली है।
चेहरे-चेहरे पर लाचारी, शामिल हैं बीमारों में।

साल बिताए, महिने बीते,
बीती सारी उम्र यहाँ।
शहर में रहकर भूल गए सब,
कितने अपने, कौन-कहाँ।
छुपी हकीकत बाहर आती, होश नहीं किरदारों में।

चलो किसी दिन तो आएगा,
भूला-बिसरा गाँव मेंरा।
शहर-शहर और बस्ती-बस्ती,
चल चल हारा पाँव मेरा।
मगर नहीं मिल पाया साथी कोई एक हजारों में।

-महेश सोनी
भोपाल।

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