सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

मंजिल मंजिल भटक रहा है 17

मंजिल मंजिल भटक रहा है
कब से ये बंजारा मन

खोज रहा है साँझ सुहानी
कंकरीट के जंगल में
शोर शराबा, हल्ला गुल्ला
भीड़ भरे इस दंगल में

कितनी बार उदास हुआ है
एकाकी आवारा मन ।।


आँखों में रेशम के सपने
ये भी लेकर आया था
किसी समय अपनी बस्ती में
इसने अलख जगाया था

अय्यारों की महाभीड़ में
गुम सुम है बेचारा मन
मंजिल मंजिल भटक रहा है
कब से ये बंजारा मन ।

अर्बुदा ओहरी
(दुबई)

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