मंजिल मंजिल भटक रहा है
कब से ये बंजारा मन
खोज रहा है साँझ सुहानी
कंकरीट के जंगल में
शोर शराबा, हल्ला गुल्ला
भीड़ भरे इस दंगल में
कितनी बार उदास हुआ है
एकाकी आवारा मन ।।
आँखों में रेशम के सपने
ये भी लेकर आया था
किसी समय अपनी बस्ती में
इसने अलख जगाया था
अय्यारों की महाभीड़ में
गुम सुम है बेचारा मन
मंजिल मंजिल भटक रहा है
कब से ये बंजारा मन ।
अर्बुदा ओहरी
(दुबई)
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