सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

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भीड़ ,केवल
भीड़ मिलती
शहर के एकांत में
रूह के संग
देह छिलती
शहर के एकांत में


साइबर कैफ़े
हमारी बात
कह पाते नहीं
हम स्वयं से
बिना बोले
तनिक रह पाते नहीं
एक पत्ती
नहीं हिलती
शहर के एकांत में


टूट जाता है
भरोसा
टूट जाते आइने
गिनतियों के
शोर में कोई
किसी को क्या गिने
धूप खुलकर
नहीं खिलती
शहर के एकांत में


चूर हो
लहरें बिखरती
और शक्लें जागतीं
ट्रेन के पीछे
गठरियाँ लिए
अपनी भागतीं
याद,गहरे
जख्म सिलती
शहर के एकांत में

-यश मालवीय
(इलाहाबाद)

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