सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

गाँव अपना छोड़कर 17

क्यों चले आए यहाँ हम
गाँव अपना छोड़ कर

दूरियाँ तो जगत की थीं
मुट्ठियों में बाँध लीं
शब्द-शिष्टाचार था
संवेदनाएँ बाँट लीं
किन्तु ये जो नागफनियाँ
नफरतों की हैं
दंश धरती
जहर भरती
दहशतों की हैं
कौन इनमें उलझते
दामन बचाएगा
कौन गिरती देह
टूटे तन जुड़ाएगा
प्रश्न मुँह फाड़े खड़े हैं
शहर के हर मोड़ पर

भीड़े के सैलाब हैं
पर आदमी मिलता नहीं
इन घटाओं में नहीं है
प्यार का कतरा कहीं
नाम अपने ही पड़ोसी का
नहीं हम जानते
विश्व मानव प्रेम के
तम्बू हवा में तानते
नाच लो ! गाओ ! हँसो !
रोते रहो सिर फोड़कर
है किसे फुर्सत तुम्हारे पास आए दौड़कर

यह शहर है
गीत मत गाओ यहाँ चौपाल के
घाट गंगा के नहीं हैं
ताल हैं भोपाल के

वादियों की शांति में
अब कुछ हवाएँ बदचलन
द्वार पिछले खोलकर
करने लगी हैं संचरण
कौन जाने
कब कहाँ
तूफान फिर झकझोर कर
जिंदगी रख दे सड़क पर
यों मसलकर तोड़कर

-यतीनद्रनाथ राही
(भोपाल)

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