सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

17

महानगर के बाज़ारों में
गिरह काटती धूसर संध्या।

स्वेद-सिक्त धकियाते चेहरे
रुद्ध राह है, पग पथराए
रक्त-जात संबंधों को भी
रहे बाँट गूँगे चौराहे

यहाँ रोज़ ईमान ख़रीदे
बेच झील पेशेवर संध्या।

दिशा-हीन अंधी भीड़ों में
रहा खोज क्या निपट अकेला
लुटा राह में बनजारों-सा
गया छूट पीछे वह मेला

सूख गीत के अंकुर जाते
भूमि नागरी ऊसर वंध्या।

बनी बेड़ियाँ हैं अनदेखी
वर्ण-गंध की मधु छलनाएँ
लिए वंचना का बोझा हम
कहाँ-कहाँ की ठोकर खाएँ

विहग फाँस कर विश्वासों के
पंख कतरती निष्ठुर संध्या।

-राजेन्द्र गौतम
(दिल्ली)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें