सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

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रोज़ जीते, रोज़ मरते
उम्र यों ही कट रही है
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते!

फिर कपोतों की उमीदें
आँधियों में फँस गई है
बया की साँसे कहीं पर
फुनगियों में कस गई है

यहाँ तोते बाज से मिल
पंछियों के पर कतरते!

कंपकपांते होठ नाहक
थरथराती देह है
और कुर्ते पर चढ़ा बस
इस्तरी-सा नेह है

पूछिए मत हाल बस
हर हाल में सजते-सँवरते!

लूटकर लाए पतंगे
लग्गियों से जो यहाँ
कैद उनकी मुट्ठियों में
आजकल दोनों जहाँ

कुछ धुआँते पेड़
उन पगडंडियों की याद करते!

-भारतेंदु मिश्र
(दिल्ली)

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