सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

शहर का एकांत 17

ढो रहा है
संस्कृति की लाश
शहर का एकांत

बहुत दुनियादार है यह
बचो इससे
दलाली व्यापार है
सच कहो किससे
मंडियाँ इंसान के
ज़ज्बात की हैं-
हादसों के लिख रही हैं
नये किस्से

खो रहा है
ढाई-आखर-पाश
हो दिग्भ्रांत
शहर का एकांत

नहीं कौनौ है
हियाँ अपना
बिना जड़ का रूख
हर सपना
बिन कलेवा और
बिन सहरी-
चल पड़े पग,
थाम न दिल कँपना

हो रहा है
हालात-कर का ताश
बन संभ्रांत?
शहर का एकांत

-संजीव सलिल
(जबलपुर)

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