सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

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भीड़ भरी इस
नीरवता का
किससे करें गिला

पीपल, बरगद, नीम
छोड़कर कहाँ चले आये
कैसे कहें
यहाँ पग-पग पर
ज़ख्म बहुत खाये
जो आया
हो गया यहीं का
वापस जा न सका
चुग्गे की
जुगाड़ में पंछी
खुलकर गा न सका
साँसों वाली
मिली मशीने
इंसां नहीं मिला

इस मेले में
सभी अकेले
कैसा ये संयोग
जितना ऊँचा
कद दिखता है
उतने छोटे लोग
किसको फुरसत यहाँ
कि जाने, उसका कौन पड़ोसी
मन में ज्वार
छिपा रहता है
होठों पर खामोशी
रहे बदलते
राजा रानी
बदला नहीं किला

अपनी अपनी
नाव खे रहे
सब नाविक ठहरे
कोई नहीं
किसी की सुनता
सबके सब बहरे
बूढ़े बरगद की
दाढ़ी का
कहाँ ठिकाना है
गौरैया का
नहीं यहाँ अब
आना जाना है
गमलों में भी
कहीं भला कब,
कोई कमल खिला

-डा० जगदीश व्योम
(नई दिल्ली)

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