मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

धूप आँगने आई 18

डूबा था इकतारा
मन में
जाने कब से
चाह रहा था
खुलना-खिलना
अपने रब से
दी झनकार सुनाई

खुलीं खिड़कियाँ
दरवाज़े
जागे परकोटे
चिड़ियाँ छोटीं
तोते मोटे
मिलकर लोटे
नया सवेरा लाई

महकीं गलियाँ
चहकीं सड़कें
गाजे-बाजे
लोग घरों से
आए बाहर
बनकर राजे
गूँजी फिर शहनाई

--अवनीश सिंह चौहान
(मुरादाबाद)

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