बदले बदले से लगते हैं
उत्सव के मौसम।
आई शरद
शक्ति पूजा की
जगह जगह चर्चा
पूजा-अर्चन, दीपमालिका
कितना ही खर्चा
किन्तु अहिल्या पाषाणी सी
क्र्रोध भरे गौतम।
सिर्फ जलाये गये
हर जगह कागज के पुतले
अब भी देव डरे सहमे हैं
रावण-राज चले
वन में राम, बध्द्व है सीता
विवष संत संगम।
इस पिशाचनी महँगाई की
कब तक घात सहें
भूखी नंगी दीवाली की
किस से व्यथा कहंे
पर्वत बनी समस्याऐें है
तिनके जैसे हम
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आबूरोड (राज.)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें