अनचाहे पाहुन से
गर्मी के दिन
व्याकुल मन घूम रहा-
बौराये- बौराये
सन्नाटा पसरा है-
चौराहे, -चौराहे
चुभो रही धूप यहाँ
तन मन में पिन
गर्मी से अकुलाये
गर्मी के दिन
छाया को तरसे खुद
जेठ की दुपहरी है
हवा हुई सत्ता सी
गूँगी औ॔' बहरी है
कैसे अब वक़्त कटे
अपनों के बिन।
आख़िर क्यों आये ये
गर्मी के दिन
वोटों के सौदागर
दूर हुए मंचों से
जनता को मुक्ति मिली
तथाकथित पंचों से
आँखों में तैर रहे
सपने अनगिन
गंध नयी ले आये
गर्मी के दिन
-संजीव गौतम
गर्मी के दिन
व्याकुल मन घूम रहा-
बौराये- बौराये
सन्नाटा पसरा है-
चौराहे, -चौराहे
चुभो रही धूप यहाँ
तन मन में पिन
गर्मी से अकुलाये
गर्मी के दिन
छाया को तरसे खुद
जेठ की दुपहरी है
हवा हुई सत्ता सी
गूँगी औ॔' बहरी है
कैसे अब वक़्त कटे
अपनों के बिन।
आख़िर क्यों आये ये
गर्मी के दिन
वोटों के सौदागर
दूर हुए मंचों से
जनता को मुक्ति मिली
तथाकथित पंचों से
आँखों में तैर रहे
सपने अनगिन
गंध नयी ले आये
गर्मी के दिन
-संजीव गौतम
वाह !
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