सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

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हम हैं वासी महानगर के
कैसे जानें
कब जंगल में टेसू फूले

छोटा-सा है फ्लैट हमारा
जोत नहीं आती सूरज की
दादी से थी सुनी कहानी
वंशी-मादल के अचरज की
कजरी गातीं थीं
काकी जो
उसको भी काफ़ी कुछ भूले

नये वक्त के हाट-लाट का
रोग हमें है ऐसा व्यापा
हमने सूरज-चाँद-सितारे
सबको है पर्दों से ढाँपा
याद रहे अब
हमको कैसे
कहाँ टाँगते थे हम झूले

रोज़ बाँचते हम ख़बरों में
सकल देस की हुई तरक्की
बोतल-बंद बिक रहा पानी
बिकी रात अम्मा की चक्की
बुआ करें क्या
आँख न चढ़ते
उनके लाये हुए छ्ठूले

--कुमार रवीन्द्र

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