गुरुवार, 26 सितंबर 2013

जरा धूप फैली 02

जरा धूप फैली जो
चुभती कड़कती
हवा गर्म चलने लगी है ससरती

पिघलती
सी देखी
जो उजली ये वादी
परिंदों ने की है शहर में मुनादी
दरीचे खुले हैं सवेर-सवेरे
चिनारों पे आये
हैं पत्‍ते घनेरे
हँसी दूब देखो है कैसे किलकती

ये सूरज
जरा-सा
हुआ है घमंडी
कसकती हैं यादें पहन गर्म बंडी
उठी है तमन्ना जरा कुनमुनायी
खयालों में
आकर, जो तू मुस्कुरायी
ये दूरी हमारी लगे अब सिमटती

बगानों
में फैली
जो आमों की गुठली
सँभलते-सँभलते भी दोपहरी फिसली
दलानों में उड़ती है मिट्टी सुगंधी
सुबह से
थकी है पड़ी शाम औंधी
सितारों भरी रात आयी झिझकती

-गौतम राजरिशी

गर्मी के दिन 02

अनचाहे पाहुन से
गर्मी के दिन

व्याकुल मन घूम रहा-
बौराये- बौराये
सन्नाटा पसरा है-
चौराहे, -चौराहे

चुभो रही धूप यहाँ
तन मन में पिन
गर्मी से अकुलाये
गर्मी के दिन

छाया को तरसे खुद
जेठ की दुपहरी है
हवा हुई सत्ता सी
गूँगी औ॔' बहरी है

कैसे अब वक़्त कटे
अपनों के बिन।
आख़िर क्यों आये ये
गर्मी के दिन

वोटों के सौदागर
दूर हुए मंचों से
जनता को मुक्ति मिली
तथाकथित पंचों से

आँखों में तैर रहे
सपने अनगिन
गंध नयी ले आये
गर्मी के दिन

-संजीव गौतम

सब कुछ बदला 01

सब कुछ बदला
मगर प्यार का रंग न बदला

भोजपत्र के युग से
कम्प्यूटर के युग तक
दुनिया ने आँसू दे-देकर
छीने हैं हक़
हरिक हँसी पर
ताले जड़ डाले नफ़रत ने
है चला आ रहा
सतत् यही क्रम आज तलक
लेकिन प्रेम-दिवानी
मीरा ने हर युग में,
हँस कर विष पीने का
अपना ढंग न बदला
सब कुछ बदला
मगर प्यार का रंग न बदला

साँसों पर पहरे
लेकिन ज़िन्दा है अब भी
वर्जित फल चख़ने की
अभिलाषा है अब भी
जंगल हो,बस्ती हो,
पर्वत हो या सहरा,
ढाई आखर है तो
ये दुनिया है अब भी
सतयुग से कलियुग तक
जग बेशक आ पहुँचा,
फूलों ने खुशबू का
लेकिन संग न बदला
सब कुछ बदला
मगर प्यार का रंग न बदला

-संजीव गौतम

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

मेरे दर पे सड़क 13

ट्रैफ़िक भरी
मेरे दर पे सड़क
घर है सड़क पे
कि घर पे सड़क

ज़ोरों का बाजा
हुल्लड़ नाच शादी
उत्सव जनम का
मरन की मुनादी
बरसे हैं सब
याने सर पे सड़क

बैठक में करती
ट्रैफ़िक जाम अक्सर
गर्दो धुआँ हॉर्न
कोहराम अक्सर
उसकी है
सोफ़ा कव्हर पे सड़क

छोटा झरोखा
नहानी में घुसकर
ठंडा करे क्या
जुलूस और बैनर
साबुन पे मै हूँ
शावर पे सड़क

अनचीन्हे मुख
बेतकल्लुफ़-सी बातें
ज़िन्दा करे ये
मरे रिश्ते नाते
चढ़ती है
लंच और डिनर पे सड़क ।


अनिरुद्ध नीरव

होते सारे काम सड़क पर 13

नामी या बेनाम सड़क पर
होते सारे काम सड़क पर

जब देश लूटता राजा
कोई करे
कहाँ शिकायत,
संसद में बैठे दागी
एकजुट हो
करें हिमायत
बेहयाई नहीं टूटती,
रोज़ उठें तूफ़ान सड़क पर।

दूरदर्शनी बने हुए
इस दौर के
भोण्डे तुक्कड़,
सरस्वती के सब बेटे
हैं घूमते
बनकर फक्कड़
अपमान का गरल पी रहा
ग़ालिब का दीवान सड़क पर ।

खेत छिने, खलिहान लुटे
बिका घर भी
कंगाल हुए,
रोटी, कपड़ा, मन का चैन
लूटें बाज,
बदहाल हुए
फ़सलों पर बन रहे भवन
किसान लहूलुहान सड़क पर।

मैली चादर रिश्तों की
धुलती नहीं
सूखा पानी,
दम घुटकर विश्वास मरा
कसम-सूली
चढ़ी जवानी;
उम्र बीतने पर दिया है

-रामेश्वर कांबोज हिमांशु

शरद परी आई 18

सागर तट पर खेली
किरनो से अठखेली
नदिया के तीर गयी
ताल में नहाई


खिले सब तरफ गुलाब
गमक उठी नयी आब
नाच उठे जीव सभी
तितली मुस्काई

बिखर गया नया रंग
बजा कहीं जलतरंग
धरती के आँगन पर
उत्सव सी छाई

- डॉ. भारतेंदु मिश्र
(नई दिल्ली)

अगहन में 18

चुटकी भर धूप की तमाखू,
बीड़े भर दुपहर का पान,
दोहरे भर तीसरा प्रहर,
दाँतों में दाबे दिनमान,
मुस्कानें अंकित करता है
फसलों की नई-नई उलहन में।
अगहन में।

सरसों के छौंक की सुगंध,
मक्के में गुंथा हुआ स्वाद,
गुरसी में तपा हुआ गोरस,
चौके में तिरता आह्लाद,
टाठी तक आये पर किसी तरह
एक खौल आए तो अदहन में।
अगहन में।

मिट्टी की कच्ची कोमल दीवारों तक,
चार खूँट कोदों का बिछा है पुआल;
हाथों के कते-बुने कम्बल के नीचे,
कथा और किस्से, हुंकारी के ताल;
एक ओर ममता है, एक और रति है,
करवट किस ओर रहे
ठहरी है नींद इसी उलझन में।
अगहन में।

-श्यामनारायण मिश्र

तुम मुस्काईं जिस पल 18

तुम मुस्काईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम

लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम
तुम शर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम

देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम
तुम अकुलाईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम

कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ
नयन नशीले दीपित
मना रहे दीवाली अगुआ
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइनडे'
की गाते सरगम
तुम भर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम

- संजीव 'सलिल'
(जबलपुर)

चढ़ीं मुँडेरे पीली धूप 18

आँगन आँगन मौसम साथी
बाँच रहा है कोई पाती
बाग बाग अब
गंध उलीचे
सूरज बैठा लेकर सूप

सुधियाँ झाँकें मन गलियारे
मिटने आतुर बंधन सारे
ओस पाँख पर
मोती सींचे
मनभावन सा धरती रूप

पंछी चहके सोना किरने
भरें कुलाँचे हिरनी हिरने
साधक बरगद
आँखें मीचे
ऋतु है रानी मौसम भूप

-अशोक गीते
(खण्डवा)

पलक झपकते ही 18

पलक झपकते ही सबके सब
मेरे काम किये
उसने सौ माँगे तो मैंनें
दो सौ उसे दिये|

देकर काम कराने की
ये रीत पुरानी है
सदियों से ही जन जन की
जानी पहचानी है
बड़े बुजुर्गों ने ये बातें
बारंबार कहीं
पैसे देकर काम कराना
अब तो कठिन नहीं
हम तो लेकर देकर ही
जीवन समृद्ध जिये|

घर घर में अब होड़ लगी है
दौड़ लगाने की
जैसे भी हो किसी तरह से
सब कुछ पाने की
इसी चाह ने रिश्तों मित्रों
से नाता तोड़ा
झूठ दिखावे से निर्मित
छल का मुखड़ा ओढ़ा
किसी तरह भी उल्लासित हो
आनंदित रहिये|

पैसा रहा हाथ में तो
फिर हर दिन उत्सव है
ऊँची पदवी कुर्सी है तो
रोज महोत्सव है
जिस दिन "डैडी" ढेर ढेर
रुपये घर लाते हैं
उस दिन बीवी बच्चों के
चेहरे खिल जाते हैं
जल जाते बिन दीवाली के
ढेरों ढेर दिये|

झोपड़ियों में जिस दिन भी
चूल्हा जल जाता है
मानो उस दिन बहुत बड़ा
उत्सव हो जाता है
देख तवे पर रोटी
बच्चे खुश हो जाते हैं
बड़े जोर से भारत माँ की
जय चिल्लाते हैं
आज आप भी भारत माता की
जय जय कहिये

-प्रभु दयाल
(छिंदवाड़ा)

दिन उत्सव के 18

दिन उत्सव के
दीप लिये हैं खड़े द्वार पर
उन्हें नमन है

जोत उन्हीं दीयों की
सबको उजियारेगी
लखमी मइया
सबके दुख-विपदा टारेगी

दिन उत्सव के
ड्योढ़ी-ड्योढ़ी दीप रहे धर
उन्हें नमन है

सूरज भी है
मेघों के घेरे से निकला
यही प्रार्थना
छँटे अँधेरा जो है पिछला

दिन उत्सव के
नेह रहे बो, साधो, घर-घर
उन्हें नमन है

यही दुआ है
ताल-कुएँ हों कभी न खारे
शोक-मोह जो रहे आसुरी
बीतें सारे

दिन उत्सव के
जगा रहे सुख सबके भीतर
उन्हें नमन है

-कुमार रवीन्द्र

उत्सव का मौसम 18

घर घर में
फिर आया
उत्सव का मौसम

बिजली की धोबिन ने
जमकर था लूटा
धोबी इसके फंदों
से थोड़ा छूटा
त्यौहारी पैसों से
जेबों में खनखन
सूखे आँगन में है
कपड़ों का सावन
सहरा पे लहराया
रंगों का परचम

हलवाई ने प्रतिमा
शक्कर से गढ़ दी
भूखी गैलरियों में
जमकर ये बिकती
बढ़ई के औजारों में
होती खट-खट
दिन भर भड़भूँजे के
घर मचती पट-पट
आँवें के मुख पर है
लाली का आलम

मैली ना हो जाएँ
बैठीं थीं छुपकर
बक्सों से खुशियाँ सब
फिर आईं बाहर
हर घर में रौनक है
गलियों में हलचल
फूलों से लगते वो
पत्थर जो थे कल
अद्भुत है कमियों का
खुशियों से संगम

-धर्मेन्द्र कुमार सिंह
(बरमाना, बिलासपुर,हिमाचल प्रदेश)

आँगन आँगन दीप 18

आँगन-आँगन दीप धरें
यह अंधकार बुहरें

होता ही आया तम से रण
पर तम से तो हारी न किरण
जय करें वरण ये अथक चरण
भू-नभ को नाप धरें

लोक-हृदय आलोक-लोक हो
शोक-ग्रसित भव विगत-शोक हो
तमस-पटल के पार नोक हो
यों शर-संधान करें

डूबे कलरव में नीरवता
भर दे कोमलता लता-लता
पत्ता-पत्ता हर्ष का पता
दे, ज्योतित सुमन झरें

- डॉ. राजेन्द्र गौतम
(नई दिल्ली)

उत्सव का मौसम 18

हरियाली ने हर घाव पर
लगा दिया मरहम
पावस बीता, फिर से लौटा
उत्सव का मौसम

हम जीव की भाग दौड़ में
बुरी तरह थक जाते
फिर मन में उमंग भर देते
ये उत्सव जब आते
छुवन हवा की बिसरा देती
दुनिया के सब गम

दुर्गा पूजा और दशहरा
फिर होगी दीवाली
मेला देखेंगी पापा संग
आँखें भोली भाली
बूढ़ों से आगे ही होंगे
बच्चे चार कदम

माथे पर चिन्ता की रेखा
डाल गई महँगाई
आखिर हमको भी जब कड़वी
लगने लगी मिठाई
तब गरीब पर क्या गुजरेगी
सोच रहे हैं हम

-रवि शंकर मिश्र 'रवि'
(प्रतापगढ़)

दीप जला दो आँगन–आँगन 18

जगमग
नव प्रकाश हो पावन
दीप जला दो‚ आँगन–आँगन

ये प्रकाश
के पंख रुपहले
दूर क्षितिज पर जाकर पहले
कर दें अपना यह विज्ञापन

धुँधले
पंथ‚ अँधेरी राहें
पकड़–पकड़ ज्योतिर्मय बाहें
स्वर्ग बना दें‚ जगत अपावन

अंधकार
का नष्ट गर्व है
दीप जले हैं‚ ज्योतिपर्व है
उजला–उजला दामन–दामन

मन से
मन का दीप जलाएँ
आजीवन जन–जीवन गाएँ
द्वेषभाव का किए विसर्जन

—राममूर्ति सिंह 'अधीर