सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

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भैया जी के स्वप्नलोक में
आता रहा शहर।

शीशे जैसी चिकनी सड़कें
आवाजाही चहलपहल
दुल्हन जैसी सजीं दुकानें
नभ को छूते रंग महल
नये नये रूपों में
मन को
भाता रहा शहर।

रूठी बैठीं सुख सुविधाएँ
छोटे ने अपनाया घर
आशाओं की गठरी लेकर
भैया पहुँचे बड़े शहर
उम्मीदों के
गीत सुहाने
गाता रहा शहर

अपनेपन को कितना खोजा
व्यर्थ लगाये कितने फेरे
गूँगी बहरी मानवता ही
मिला दौड़ती साँझ सवेरे
भरी भीड़ में
एकाकीपन
लाता रहा शहर

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आबूरोड, राजस्थान

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