आए हो सिहराते
शिशिर के सिपहिये
हमने लो!
द्वार धरे मंगलमय सातिये
कोहरे की
साडी में लिपटी धवलता¸
दातों के बीन बजे गीत में नवलता.
हिमगिरि से
ले आए बर्फ भरीं पेटियां¸
धरती के आंगना¸
धर कर,तुम चल दिए.
दिखलाते
हमको हो झीनी चंदरिया¸
कहाँ धरी सूरज की भेजीं रजाइयाँ.
सरगम को छोड़
कहीं निःस्वर क्यों हो गए¸
सांसों का स्पन्दन
ठहरा कर चल दिए
कितनी
विसंगतियाँ कितनी हैं उलझनें¸
जूझता रहा जीवन जाने न सुलझनें.
रूखे अन्तस्तल
में शीतलता भर गए¸
तन्द्रा तब टूटी
झकझोर कर चल दिए
निर्मला जोशी
भोपाल
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