रविवार, 23 अक्तूबर 2011

जिससे महक उठें मन 11

चलो ढूँढ वो लाएँ चंदन
जिससे महक उठें मन

कब थे ऐसे फटे-हाल मन
अंतर्मन थे उपवन
पल-पल की ये भाग-दौड़ ही
रही भुलाए बचपन
मन के बिन कब पुष्प खिलेंगे
बंजर होंगे तन-मन
चलो ले आएँ वो स्पंदन
जिससे चहक उठें मन


प्रीत के बिरवे बोकर मन की
फसलें स्वयं उगानी
सूखे मन में नेह-नीर भर
कविता कोइ जगानी
मौन अधर रख आएँ बंसी
हर मन कहे कहानी
चलो ले आएँ वो अपनापन
जससे महक उठें मन


हम हैं बूँदें एक सिंधु की
पलक झपकते मिटतीं
हैं अनमोल खजाने मन क्यूँ
श्वास अटकते दिखतीं
खिले पंक में भी पंकज मन
यही सीख अपनानी
चलो ले आएँ नेह बंधन
जिससे बहक उठें मन
--
गीता पंडित

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