सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

साल आया है नया 12

फटे मोजे,
पाँव की उँगली दिखाई दे रही
साल आया है नया
दुनिया बधाई दे रही!

रोटियाँ ठंडे तवे पर
आग पानी-सी लगे
ज़िंदगी कब तक बताओ
मेहरबानी-सी लगे
बीतकर भी एक बीती धुन
सुनाई दे रही!

दूध-सा फटना दिलों का
साल-भर जारी रहा
हर नशा उतरा चढ़े बिन
सिर मगर भारी रहा
ज़िंदगी फिर बंद घड़ियों को
कलाई दे रही!

आपसी रिश्ते रहे
काई लगी दीवार-से
रह गए हम भुरभुरे
संकल्प की मुट्ठी कसे
उम्र पतली ऊन को
मोटी सलाई दे रही!

लगे उड़ने बहुत सारे सच
हवा में चील से
कई अफ़साने बिना जाने
दिखे अश्लील से
सुबह भी अब
सुबह होने की सफ़ाई दे रही!

मंज़िलों के नाम
उलझे रास्ते ही रह गए
बहुत नन्हे मोड़ भी
बस खाँसते ही रह गए
माँ की खाली पेट
बच्चों को दवाई दे रही!

डबडबाई आँख
हर तारीख को पढ़ती रही
बदचलन-सी सांस
अपनी सांस से लड़ती रही
रात, दिन को देह की,
सारी कमाई दे रही!

--यश मालवीय
इलाहाबाद

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