सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

फागुन आया 14

ठंडी चले बयार
गंध में डूबे आँगन द्वार
फागुन आया।

जैसे कोई थाप
चंग पर देकर फगुआ गाए
कोई भीड़ भरे मेले में मिले और खो जाए
वेसे मन के द्वारे आकर
रूप करे मनुहार
जाने कितनी बार
फागुन आया।

जैसे कोई
किसी बहाने अपने को दुहराए
तन गदराए, मन अकुलाए, कहा न कुछ भी जाए
वैसे सूने में हर क्षण ही
मौन करे शृंगार
रंगों के अंबार
फागुन आया।

-डॉ० तारादत्त 'निर्विरोध'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें