सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

16

बिना पन्हैंया तपी धूप में
कैसे चल पायें
चलो नीम के नीचे बैठें
थोड़ा गपयाएँ

बहुयें गईं मायके अपने
मिलने अम्मा से
जैसे जाते हैं परवाने
मिलने श‌म्मा से
निश्चित ही अम्मा बाबू का
मन महका होगा
दरवाजा खिड़की बिस्तर‌
आंगन महका होगा
दौड़ा होगा भाई
बहिन को भीतर ले जाएँ

गर्द गुबार धूल धक्कड़ से
घर सहमा होगा
अम्मा के कानों में
ढेरों मैल जमा होगा
सरसों वाला तेल गरम‌
बिटिया कर लायेगी
अम्मा के कानों में
कुछ बूंदें टपकायेगी
भौजी बोलेगी
आओ अब भीतर सुस्ताएँ

जहाँ कभी गूँजा करती थी
शिवजी की हर हर‌
भौजी के आने से कैसा
टूट गया वह घर‌
अब तो मन में दहक रहे
टेसू से अंगारे
केवल और केवल‌ चर्चा में
हिस्से बटवारे
क्यों स्वच्छंद हुई जातीं
आशायें इच्छाएँ?

अब पलाश के फूल कहाँ
जाने पहचाने हैं
नई पीढ़ी के लिये
आजकल अंजाने से हैं
लिखा किताबों में जब तब‌
वह बच्चे पढ़ते हैं
अब पलाश को सपनों की
आंखों से गढ़ते हैं
लाकर ताजे फूल कभी
बच्चों को दिखलाएँ

--प्रभु दयाल

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