सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

चलो मन कहीं प्यार की छाँव 17

चलो मन कहीं प्यार की छाँव

भागम भाग, धुआँ कोलाहल
हम सब हैं बेचैन।
ऊँची छत है, घने वृक्ष हैं
चुटकी भर ना छाँव।
चलो मन
कहीं प्यार की छाँव।

सुगबुगाता, अंधियारा
शोर शराबा धुआँ-धुआँ।
छलना यहाँ चाँदनी का
आग उगलना सूरज का।
बना पराया सुलग रहा मन
कहाँ मिलेगी ठाँव।
चलो मन
कहीं प्यार की छाँव।

डामर की तपती सड़कें हैं
लाखों लाखों पाँव।
दिखते नहीं फफोले जग को
जीवन लगता दाँव।
चलो मन
कहीं प्यार की छाँव।

थकता नहीं शहर पल भर भी
थक जाती है पीडा़।
काट रहा है यहाँ हमें भी
सूनेपन का कीडा़।
शहरों की यह भरी भीड़ अब
लील रही है गाँव।
चलो मन
कहीं प्यार की छाँव।

अनपहचाना स्वाद अनोखा
फीका है पकवान।
लहरें उठतीं अनगिनती की
एकाकी है नाँव।
चलो मन
कहीं प्यार की छाँव।

-निर्मला जोशी
(भोपाल)

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