ये खालीपन
महानगर का
लील रहा अपने
आपाधापी दौड लगी है
कहाँ जा रहे जानें ,
बाहर-बाहर देख रहे सब
अंतर को क्या मानें ,
एक फ्लैट में सिमट रहा है
सारा जहाँ अजाना
रिश्तों की चूड़ी टूटी है
घाव करे मनमाना,
किससे बोलें
और बतियाएं
कील रहा सपने
साँसें कोई बात कहें तो
मनवा चुप्पी साधे,
बिखर गया है ढाई आखर
रूठी मन की राधे,
फटी बिवाई पावों में हैं
कैसे इनको ढाँपें ,
बिखर रहीं हैं पाँखें मन की
पारिजात मन काँपें,
कौन तराजू
लाकर तौलें
नेह रहा नपने
भरी भीड़ में भी तो मन का
पँछी कहाँ दुकेला ,
अपनों से भी हो बेगाना
कैसा रहे अकेला,
पीब बहे है धमनी-धमनी
दीमक चाट रही तन,
काई के झुरमुट से फिसला
जाता है अंतर्मन,
धीमे - धीमे
मन के अंदर
जोग लगा जगने
-गीता पंडित
(दिल्ली)
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