सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

साधो, सपना एक अकेला 17

मिला हमें कल
महानगर में
साधो, सपना एक अकेला

जनमा था वह पिछले युग में-
बुढ़ा गया है
उसके घर के ठीक सामने
बना निराला हाट नया है

शाम-ढले से
ढली रात तक
वहाँ लगा रहता है मेला

नई बजरिया के खेले
वह समझ न पाता
कुंभनदास हुए थे पहले -
उनसे ही है उसका नाता

आते-जाते
घिसी पनहिया
मिला नहीं पर उसको धेला

पुरखों का घर था उसका
वह ढहा रात कल
दीमक-खाई ड्योढ़ी-चौखट
छत-दीवारें भी थीं खोखल

कब तक टिकता
गये-समय से
गिरवी था वह घर अलबेला

- कुमार रवीन्द्र

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