रविवार, 23 अक्तूबर 2011

होते होते रह गया 09

खिलते खिलते रह गया आज फिर नील कमल
होते होते रह गया आज फिर मन निर्मल

आते आते खो गयी
किरण की नाव कहीं
बसते बसते रह गया
स्वप्न का गाँव कहीं
पूजा के पहले ही
दीपक बुझ गया और
सब बिखर गये
कुंकुम, गुलाल, हल्दी चावल
खिलते खिलते रह गया आज
फिर नील कमल

पथ ही अमित्र हो गया
लक्ष्य प्रतिकूल न था
अँजुरियों में थी तृषा
कि उनमें फूल न था
आरती सजी पर
शब्द पात्र सब रिक्त पड़े
रह गया शेष फिर वही
व्यथा का विंध्याचल
खिलते खिलते रह गया आज
फिर नील कमल
--
हरि ठाकुर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें