डूबा था इकतारा
मन में
जाने कब से
चाह रहा था
खुलना-खिलना
अपने रब से
दी झनकार सुनाई
खुलीं खिड़कियाँ
दरवाज़े
जागे परकोटे
चिड़ियाँ छोटीं
तोते मोटे
मिलकर लोटे
नया सवेरा लाई
महकीं गलियाँ
चहकीं सड़कें
गाजे-बाजे
लोग घरों से
आए बाहर
बनकर राजे
गूँजी फिर शहनाई
--अवनीश सिंह चौहान
(मुरादाबाद)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें